kuchhkhhash
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पहाड़ों से ऊँचे अरमान
वक़्त मुट्ठी भर रेत सी ,
स्वप्नों ने डेरा डाला ऐसे
आँखों को कुछ दिखता नहीं !
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व्यथित मन क्लांत तन
क्षण भर को विश्राम नहीं
भयंकर मंजर दिखता अब
इंसानियत लहूलुहान पड़ी !
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स्वर्णिम मृग भगाता रहा
पकड़ में कभी आया नहीं,
आकाँक्षाओं के मरुथल में
शाद्वल कभी दिखा नहीं !
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थम जाओ तो पल भर को
एक क्षण को सोचो जरा,
क्या खोया क्या पाया तूने
वक़्त का पंछी उड़ने चला !
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