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सीमा तय करेंगे ये…?! Jagran Junction Forum

kuchhkhhash
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जागरण जंक्शन फोरम में बेटियों के अपना या पराया होने के मुद्दे पर बहस छिड़ चुकी है और अधिकांश यही मानते हैं कि बेटियां अधिक संवेदनशील हैं लिहाजा वो ज्यादा अपनी हैं | मेरे मन में भी कुछ ऐसे सवाल उठने लगे जिसका उत्तर ढूंढे नहीं मिला ! हमारी मुलभुत सामाजिक संरचना , संस्कृति व संस्कारों में बेटियों की वास्तविक जगह एवं उसकी मर्यादा विवाह के बाद ही तय रखी गई है | विवाह से पूर्व उसे सुरक्षित व संरक्षित रखने कि जिम्मेवारी उसके माता पिता को सौंपी गई है |

युग बदला | अब बदलते ज़माने की मांग के हिसाब से बेटियों ने अपनी पुरातन छवि से छुटकारा पाने की ठान ली और इसके लिए कदम कदम पर बेटियां अपनी प्रतिभा साबित करती रही | आज उनके हौसले में पुरुषों से आगे निकलने की जिद साफ़ दिखती है | हर हाल में अपनी पहचान पाने की उनकी जद्दोजहद मंजिल पाने को बेताब दिखती है पर रास्ते की रुकावटें हैं जो कम होने का नाम ही नहीं लेती | यहाँ तक कि माता पिता के लिए उनके सुरक्षा की चिंता आज भी वैसी ही दिखती है जैसी युगों पूर्व थी ! और ये चिंता क्यों न हों, घर, बाहर, पड़ोस, स्कूल,कालेज.. यहाँ तक की राह चलते भी बेटियों की आबरू तार तार कर दी जाती है !

दो दिन पहले की गोहाटी की एक घटना अभी न्यूज चैनलों की टी आर पी बढा रहा है, पर उस स्कूली बच्ची की मनोदशा की हम कल्पना तक नहीं कर सकते जिसका मनचलों ने सरेआम चीरहरण कर डाला , वो भी सौ तमाशबीन के सामने ! उसकी गलती यह कि वह रात के नौ बजे एक बर्थडे पार्टी अटेंड कर निकली थी और बाहर निकलते ही ….और वह गिड़गिड़ाती रह गई आधे घंटे तक ! यह दृश्य रोंगटे खड़ा कर देनेवाला था !

कौन स नया युग,कौन सी आजादी और किसके बदले मानसिकताओं की बात हम करते हैं जब ऐसी घटनाएँ हमारे विश्वास कि धज्जियाँ सरेआम उड़ा जाती हैं | लगता है जैसे पुरुष सत्तात्मक समाज आज भी लड़कियों की आजादी और उनकी अलग पहचान को खुले दिल से स्वीकार नहीं कर पा रही ! और इधर आज भी बेटियों के अभिभावक यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि आखिर बेटियों के सुरक्षा की सीमा कहाँ तक निर्धारित करनी है !

दिल्ली में एक बयालीस वर्ष का शिक्षक अपने स्कूल की एक चौदह वर्षीय छात्रा का पिछले चार वर्षों से शारीरिक शोषण कर रहा था, डरी सहमी बच्ची के घरवालों को जिसकी भनक तक नहीं मिल पाई ! ..सवाल यही कि बेटियों का रात में निकलना असुरक्षित है तो दिन में भी वो कितनी सुरक्षित है ? वह घर से बाहर हर कहीं असुरक्षित है तो वह अपने घर, पड़ोस, स्कूल या कालेज में ही कितनी सुरक्षित है ?!

इन सवालों से परेशां मन में एक ख्याल यह भी आता है कि इस दुर्दशा के सामने माता पिता का सख्त अनुशासन लाख गुना बेहतर है ! अनुशासन की सीमाओं के अन्दर कम से कम बेटियों के वजूद और आत्म सम्मान की धज्जियाँ तो नहीं उडेंगी !

यानि घूम फिरकर वही पितृ सत्तात्मक सोच हर हाल में अपना दबदबा बनाए रखना चाहता है ..कल की ही एक खबर इस सोच का पुख्ता समर्थन करती है जिसमें यूपी के एक गाँव में यह तुगलकी फरमान जारी किया गया हैं कि चालीस वर्ष से कम की महिलाएं अपने पास मोबाइल फोन नहीं रख सकतीं !! ..और बेटियां हैं जो फिर से हार मानने को तैयार नहीं और वो हार मानें भी क्यों ?बड़ी मुश्किलें झेलकर उसने अपने लिए एक जगह बनाई है , कितनी ही परीक्षाओं के बाद उसने अपना परिचय ढूंढा है, जिसे वो आसानी से नहीं खो सकतीं !
आखिर में वही सनातनी सवाल पुनः सामने खड़ा हो गया कि क्या बेटियां परायी होती है ? …ऐसी घटनाएँ इस बात की पुरजोर वकालत करती हैं और माता पिता के मन में उस डर को और पुख्ता करती है कि उनकी बेटियां सही सलामत “अपने घर” चली जाएँ बस….और कुछ नहीं चाहिए !

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