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हमारे समाज में आज भी अधिकांश बेटियों की शादी में उसकी स्वीकृति के बजाय घरवालों की मर्जी ज्यादा मायने रखती हैं | ऐसे में मैंने इस रचना के माध्यम से उन बेटियों का दर्द बयां करने की कोशिश की है जिनकी महत्वाकांक्षाएं, प्रतिभा और सपने विवाह की जिम्मेवारियों तले दबकर कहीं गुम हो जाते हैं !
क्यों पापा ?
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वो देखो दुनिया
बढ़ गई कहाँ से कहाँ !
मैं ही छुट गई पीछे
पर अब मैं भागूं कैसे ?
बेड़ियाँ मेरे पांवों में
किस जुर्म की डाली हैं पापा !
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मेरे भी कुछ सपने थे
आकाश छूने का अरमान था
होनहार है बेटी कहते थे !
फिर क्यों आँखों पर पट्टी
बंधवा दी है बोलो पापा !
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मेरे घर की नहीं पराई है तू
लेकिन मैं ये मान लूँ कैसे !
आपकी हर मायूसी में
क्यों रोती हैं मेरी आँखें !
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मेरे वजूद के टुकड़े कर के
पराया कर दिया क्यों पापा ?
आपने दामन झटक लिया तो
कहाँ कौन मेरा अपना होगा ?
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गिर गिरकर खुद संभलूँगी मैं
कभी सपनों का सवेरा होगा !
जब लता सी बांहें उर्जित होंगी
वो भी बनेंगी सहारा किसीका !
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