kuchhkhhash
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अपराजित उर्जा के संग
रोज़ नए संसार गढ़ती हूँ
विरक्त, बंजर धरणी मैं
तील तील हरपल मरती हूँ.
विधाता का श्राप हूँ, पर
शगुन की प्रतिमूर्ति हूँ
सबकी बलाएँ हरती मैं
बिना मांग की पूर्ति हूँ.
समाज के हाशिये पर
दरकिनार खड़ी हूँ लेकिन
परित्यक्तों को छांह देती
मैं विशाल वटवृक्ष हूँ .
यूँ न दुत्कारो मुझको
मैं भी तो इंसान ही हूँ
स्वयं अबूझ पहेली,पर
प्राण-आत्मवान हूँ.
काश थोडा आशीष बचा लें
हम अपने भी आँचल में !
सांसों की जब डोर टूटे
कोई अपना हो आँखों में.
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