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आमतौर पर ज्योतिष का अभिप्राय ही भाग्य की विवेचना करनेवाला शास्त्र माना जाता है . तोताछाप या गली मोहल्ले में दुकान चलनेवाले ज्योतिष खुलेआम ज्योतिषशास्त्र की मर्यादा का हनन करते हैं जब वो इस शाश्त्र की प्रासंगिकता कुछ उपायों या टोटकों तक सीमित कर देते हैं..शेष भाग्य के लिखे पर…
यथार्थ में ज्योतिष का मूल रूप कर्म विधान पर आधारित है. कर्म-पूर्व जन्म का,कर्म-वर्तमान जीवन का एवं इसके आधार पर विश्लेषण की प्रक्रिया.साथ ही देश,काल एवं पात्र का सिद्धांत भी लागु होता है. जैसे एक ही तारीख व् समय में जन्मे दो बच्चों की कुण्डलियाँ भले ही एक सामान बनेगी लेकिन उसका वर्तमान देश एवं पात्रता अर्थात बहुत कुछ पारिवारिक स्थिति पर निर्भर करता है . यहाँ पिता को भाग्य का दर्ज़ा मिला है जिसके कारण बच्चे का वर्तमान निर्धारित होता है.यही कारण है कि एक ही समय में जन्मे दो बच्चे अपने संस्कारों के अनुसार उन्नति करते हैं,
दूसरी तरफ,भाग्य विभेद दो जुड़वां भाइयों के बीच भी हो सकता है यहाँ पूर्वजन्म का सिद्धांत कार्य करता है, यानि पिछले जन्म के कार्य मिलकर वैसे ग्रहों की स्थिति की संरचना करते है जो उसकी कुंडली में होती है ..फिर भी यहाँ भविष्य की सभी घटनाओं की ठीक ठीक जानकारी देना संभव नहीं है . कारण मानव के वर्तमान जीवन के कर्मों में भाग्य (पूर्व जन्म के कर्म ) के खाकों में उलट फेर करने की शक्ति होती है ..अब जो भोग्य है वह निर्धारित है परन्तु उस घटना में न्यूनता या अधिकता मानव के वर्तमान कर्म पर आधारित होता है.
ज्योतिष शास्त्र में कर्मों के विश्लेषण के कई आधार है. कायिक यानि शारीरिक कर्म, वाचक यानि वाणी के दयारा किये गए कर्म एवं मानसिक अर्थात मन को प्रभावित करनेवाले कर्म -ये सभी कर्मों की श्रेणियां हैं. कर्म हमारों संस्कारों से प्रभावित होते है और संस्कार निर्माण बहुत कुछ पारिवारिक स्थिति एवं पूर्व जन्म के प्रभावों द्वारा निर्मित होते हैं.
इसे इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि विचार हमारे कार्यों को निर्धारित करते है , कार्य आदतों का निर्माण करते हैं जिससे चरित्र बनता है एवं चरित्र भाग्य को बनानेवाला होता है.
कायिक,वाचक एवं मानसिक कर्मों के अलावे कर्मों की तीन श्रेणियां और भी है . पहला है संचित -यानि वर्तमान के वो कर्म जिसका फल भोगना अभी शेष है . दूसरा है प्रारब्ध कर्म -ये कर्म पूर्व जन्म के संचित कर्म है जिसका फल हमें इस जन्म में प्राप्त हो रहे है. इसे एक उदहारण द्वारा स्पष्ट करना चाहूंगी. संचित कर्म में कर्म बीज के रूप में होता है न कि फल के रूप में. यह एक ऐसा बीज है जिसमें से अभी अंकुर निकले हैं ,उसके फल का स्वाद हमें भविष्य ही देगा . यहाँ प्रारब्ध कर्म वह है जिसके बीज पहले ही बोये जा चुके थे ,वर्त्तमान में वह वृक्ष बनकर हमें फल दे रहा है .तीसरा है आगामी कर्म -अर्थात वैसे कर्म जो हम भविष्य में करने की योजना बना रहे हैं .
संक्षेप में ज्योतिष शास्त्र “कर्मों का वर्गीकरण ” के सिद्धांत पर आधारित है . भाग्य की भूमिका का निर्माण भी कर्म ही करते है-चाहे वो वर्तमान के कर्म हो या पूर्व जन्म के….. फिर ज्योतिष को केवल भाग्य बांचने वाला शास्त्र कहना गलत है. परिस्थितियों के हिसाब से हम भाग्यवादी हो सकते हैं पर ज्योतिष इसकी सलाह नहीं देता .ज्योतिष कर्म सुधारने की बात करता है , ज़िन्दगी को दोजख मानने की बात कभी नहीं करता .
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