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जरा सोचिये

kuchhkhhash
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एक टीवी प्रोग्राम में बहत्तर वर्षीय वयोवृद्ध फ़रियाद करते नज़र आये.उनके बेटे बहु ने उन्हें अपने घर से बहार निकल फेका था.
मन व्यथित हो उठा…..जब एक घर नन्हे की किलकारियों से गुलज़ार होता है तो माँ बच्चे की बालाएं उतारते नही थकती और पिता
उसे एक अच्छी ज़िन्दगी देने के लिए कोल्हू का बैल बन जाता है. उस नन्हे की एक हिचकी माँ को बेचैन कर जाती है..धीरे धीरे
बच्चा पिता की उंगलियाँ थामकर चलना सीखता है .बाद में वही बच्चा इतनी तेज चलने लगता है कि उसे इस बात का ध्यान
तक नही रहता कि उसके साथ चलनेवाले माता पिता के कदम पीछे छूटते जा रहे हैं…और जब उन्हें सहारे कि जरुरत होती है
तो बच्चों के पास उनसे बात तक करने का समय नही होता,सांत्वना के दो बोल या सहारा तो बहुत दूर कि बात है.
आखिर कमी कहाँ रह जाती है? परवरिश में,शिक्षा में या संस्कार में…..या सबकुछ रहते हुए भी युवा पीढ़ी ही संवेदनहीन होती जा
रही है. ये अपनी ज़िन्दगी तो जीना जानते हैं पर उनसे जुडी जिंदगियों का क्या,ये इन्हें पता नही होता.अपनी लाइफ स्टायल
,अपने शौक,अपनी पार्टी ,अपनी बीवी ,अपना..अपना…अपना…बस अपनी राग.
और ये बेटियां….इनके लिए अपनी माँ त्याग की मूर्ति होती है,पर पति की माँ झगडालू पड़ोसन,जिसका एक भी उल्टा बोल
उनकी भवें चढ़ा देता है.अपनी माँ डांटे तो सिख मिलती है लेकिन सासू माँ की डांट उसे दहेज़ एक्ट में फ़साने की पृष्ठभूमि
नज़र आता है…आखिर इतना फर्क क्यों ?अगर बेटियों की माओं ने बहुत दुःख झेले हैं तो बेटों की माओं ने क्या रेडीमेड बेटा
पैदा किया है ? बहुओं को ये फर्क मिटाने के लिए खुद पहल करनी होगी,ससुराल के बारे में अपने पूर्वाग्रहों से मुक्ति पानी होगी.
yahi बात सासू माँ को भी samajhni होगी कि बहु को beti banane के लिए माँ banna padta है.
ant में parivartan prakruti का niyam है और prakruti अपने niyam duhrati है.खुद के लिए ham jaise bhavishya की kamna
करते हैं ,vaisa ही vartaman अपने badon को dena hoga.

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